डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

 

15 जुलाई दो हजार अट्ठारह ग्वालियर विश्वविद्यालय का राजनीति शास्त्र विभाग जिसमें मैं आमंत्रित अतिथि के रूप में जनजातियों पर बोलने के लिए गया था 15 16 जुलाई को आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार की समाप्ति हो रही थी वहां के समाचार पत्रों ने मुझे काफी स्थान दिया था और मैं 16 जुलाई को दोपहर का खाना खा रहा था वहीं पर एक लड़की जो राजनीति शास्त्र से पीएचडी कर रही थी मेरे पास आई और उसने मुझसे मेरा मोबाइल नंबर लिया आमतौर पर नंबर देना कोई खास बात नहीं होती है मैं उसके बाद लखनऊ लौट आया और उसमें से ज्यादातर लोगों के व्हाट्सएप नंबर पर औपचारिक बातें होती रहें वह लड़की भी मुझसे जुड़ी हुई थी अचानक एक दिन उस लड़की ने मुझे फोन किया वह उस दिन काफी दुखी थी उसने बताया कि अचानक उनके पिता को ना जाने कौन सी बीमारी हुई खिलाफ चाहने के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका जब तक उन्हें अस्पताल ले जाया गया वह इस दुनिया से चले गए और वह रो रही थी लेकिन इसी के साथ साथ उसे इस बात का दुख था कि वह अब अपनी पीएचडी नहीं कर सकेगी क्योंकि कई आर्थिक और सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो रही है मैंने उसकी सारी बातें सुनने के बाद कहा कि इससे बड़ी श्रद्धांजलि तुम्हारे पिता की और क्या हो सकती है कि यदि तुम उनके सपने को साकार करते हुए पीएचडी करो और आज के बाद तुम यह कभी मत समझो कि तुम्हारे पिता नहीं है तुम्हें जब ऐसा लगे तो तुम मुझसे बात किया करो और फिर वह मुझसे अक्सर बात करने लगी और देखते-देखते उसने मेरे सामने यक्ष प्रश्न भी खड़ा किया कि वह अपनी पीएचडी की थीसिस लिखने में असमर्थता आ रही है मैंने कभी भी राजनीत शास्त्र नहीं पड़ा है लेकिन एक अदृश्य रिश्ते के साथ मैं उस से जुड़ा था पिता शब्द इतना आसान नहीं है और बेटी की इच्छा पूरी करना भी सरल नहीं है लेकिन मैंने उसी दिन से राजनीति शास्त्र और खासतौर से प्राचीन भारत में नगर नियोजन व्यवस्था को बहुत ही गहराई से पड़ा जो मूल रूप से उसकी पीएचडी से जुड़ा था फिर उसके पीएचडी को लिखने में सहयोग करने लगा लेकिन इसी बीच मेरी मां कुछ समस्याओं से जीवन मौत से लड़ने लगी लेकिन मैं उससे या नहीं कहना चाहता था कि मैं स्वयं समस्या में गिरा हुआ।

मेरे करीबी मित्र को यह अच्छा नहीं लगता था कि मैं एक लड़की की पीएचडी में बेवजह इतना सहयोग कर रहा हूं लेकिन मैं उन्हें पिता और एक इतनी बड़ी उम्र की लड़की को बेटी के संबंध में शायद समझा पाने में असमर्थ भी हो रहा था ढेर सारे संघर्षों के बाद जीवन चलता रहा और एक दिन उसने बताया कि उसकी पीएचडी सम्मिट हो गई है और फिर शायद उसने मुझे जीवन का वह सबसे बड़ा उपहार भी दिया जब उसने कहा कि अपने पिता को मरने के बात किस तरह से मैं आपको देखने लगी उसमें मुझे लगता है कि सबसे पहले मुझे आपको बता कर आशीर्वाद लेना चाहिए कि मेरी 11 जून को शादी है आप शायद आ ना पाए लेकिन आप वहीं से मुझे आशीर्वाद जरूर दीजिएगा और 11 जून को सरिता की शादी हो गई वह अपने जीवन के उन रास्तों पर चली गई जिस अनाम रास्ते पर एक पिता की भूमिका में वह मेरे सामने आई शायद दुनिया में वर्तमान में रिश्तो और उम्र की कसौटी पर लोग या ना समझ पाए पर मुझे लगा कि किसी भी उम्र में किसी भी उम्र के साथ बाप बेटे बाप बेटी का संबंध दिया जा सकता है और मैंने उसको बहुत खूबसूरती से जिया जो अनायास ही ग्वालियर यात्रा के दौरान मेरे जीवन को दस्तक दे गया था आज पित्र दिवस के दिन ना जाने क्यों मुझे लगा कि मैं आपको यह कहानी जीवन के सच्चे रास्तों से गुजरती हुई सुनाता हुआ आगे चलता रहूं आपका आलोक चाटिया