संजीव रत्न मिश्रा, ब्यूरोचीफ, वाराणसी.

 

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जिस तरह हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार में आदिगुरू शंकराचार्य जी का योगदान अतुलनीय है, उसी तरह भारतीय सनातन परम्परा को पूरे देश में प्रसारित करने के लिए भारत के चारों कोनों में स्थापित चार मठों मे से एक श्रृंगेरी शारदा पीठ स्थापना से पुर्व शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ की भी बहुत चर्चा होती है। मंडन मिश्र कितने बड़े विद्वान थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके घर का पालतू तोता भी संस्कृत का श्लोक बोलता था। मंडन मिश्र आदिगुरूशंकराचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो शिष्य बन कर संन्यासी हो गए और उनका नाम सुरेश्वराचार्य पड़ा और वही श्रृगेरी के प्रथम शंकराचार्य बने।

वो मंडन मिश्र जिनकी विद्वता और योग्यता के कारण शास्त्रार्थ मे हराने के बाद भी आदिशंकराचार्य जी महाराज ने श्रृगेरी पीठ का प्रथम मठाधीश बनाया। ऐसे विद्वान की पहचान को विद्वानों और शास्त्रार्थ की नगरी मे शास्त्रार्थ पुरूष की पहचान को इस तरह फेंका गया जैसे वो किसी मुगल आतातायी की कब्र हो। काशी के प्राचीन धरोहरों मे एक विश्वनाथ मंदिर के पास ऐतिहासिक भवन जिसे लोग “व्यास-भवन” के नाम से भी जानते थे उस भवन का अस्तित्व विकास की बाढ़ मे धराशायी हो गया भवन में स्थापित मंडन मिश्र की प्रतिमा की जो स्थिति हुई वो शर्मनाक करने वाली है। वर्तमान समय मे प्रतिमा के अस्तित्व पर कोई बोलने वाला नहीं। जिस भवन में चारों पीठों के शंकराचार्यो की विशेष स्‍मृतियां हो, जिस भवन में कभी जार्ज पंचम सहित जहां देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्‍त्री, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग आकर काशी कि प्राचीनता से साक्षात्कार कर चुके हो, उस भवन को वेदर्दी से जमींदोज करना कहां का विकास है।

व्‍यास भवन सिर्फ एक मकान नहीं था, यह अपने आप में काशी का इतिहास, संस्‍कृति व सभ्‍यता की पहचान थी। इसको संरक्षित करने की जरूरत थी, आज सीविल इंजीनियिरिंग इतना उन्‍न्‍त हो चुका है कि इससे भवन को संरक्षित किया जा सकता था, क्‍या सनातन धर्म को मानने व जानने वालों के लिए व्‍यास भवन कोई मायने नहीं रखता है,?? क्‍या सनातन धर्म को मानने वाले के युवा पीढि़यों को अपनी संस्‍कृति व सभ्‍यता को जानने व देखने का अधिकार नहीं है ? क्‍या काशी का विकास उसकी सभ्‍यता व संस्‍कृति को मिटा कर क्योटो बनाने के बाद ही होगा?? आज व्‍यास भवन जमींदोज हो गया लेकिन विद्धानों, साहित्‍यकारों व बुद्धिजीवियों की नगरी मानी जानी वाली काशी से एक आवाज नहीं उठी, क्‍या यही है जिंदा शहर की पहचान, जहां उसकी विरासत को खत्‍म कर दिया गया।

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